आचार्य श्रीराम किंकर जी >> तस्मै श्री गुरुवे नमः तस्मै श्री गुरुवे नमःश्रीरामकिंकर जी महाराज
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प्रस्तुत है श्रीरामकिंकर जी महाराज का जीवन आलोक...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
आशीर्वाद
सामाजिक परिवेश में अनेक परम्परायें ऐसी होती हैं जो पुरातन काल से चल
रहीं हैं पर इनके साथ नई परम्परायें सृजित होती रहती हैं। पुरातन के
साथ-साथ उनकी उपेक्षा नहीं की जा सकती।
इस ग्रंथ की संरचना में भी पुरातन और नवीन परम्परा के विकसित रूप को देखा जा सकता है। प्राचीन काल से ही भक्त अपने श्रद्धेय व्यक्तियों का गुणगान करते रहे हैं और इन दिनों कई वर्षों से अभिनंदन ग्रंथों की परंपरा चल पड़ी है जिनमें अपने श्रद्धेय के प्रति हृदयगत सम्मान और अन्य लोगों का भावना को एकत्रित कर प्रकाशित करने का चलन है। इस परम्परा में गुण और दोष दोनों ही विद्यमान रहते हैं और कई बार अभिनंदन ग्रंथ की विशालता पाठकों के मस्तिष्क को बोझिल बना देती है।
मेरे समक्ष भी यह समस्या तब आई जब शिष्यों और भक्तों की यह आकांक्षा प्रबल हो उठी कि जीवन के पछत्तर वर्ष पूरे करने के बाद पूरे वर्ष को ही अमृत-महोत्सव वर्ष का रूप दे दिया जाय और पुरातन और नवीन मिलाकर एक ऐसे संग्रह की रचना की जाय जो समाज और जिज्ञासुओं के लिए संस्मरण स्वरूप हो।
मेरी अभिरुचि इस दिशा में न होने पर भी जब मुझे यह जानकारी प्राप्त हुई कि इसकी तैयारी लगभग पूर्ण हो चुकी है तब इसका विरोध अभीष्ट नहीं था, पर मैंने अपनी इस धारणा को अवश्य स्पष्ट कर दिया था कि इस ग्रंथ को प्रमाण पत्रों का संग्रह न बना दिया जाय, क्योंकि जो मुझसे परिचित नहीं हैं, ऐसे अनेक विशिष्ट लोग हो सकते हैं यदि जो मेरे बारे में औपचारिकता के नाते नाम सुनकर कुछ वाक्य लिख दें तो मेरी दृष्टि से ऐसा संग्रह निर्रथक है। यदि ऐसी ही सम्मतियों को संग्रह करना हो तब तो कई पोथ बनाए जा सकते हैं। इसके स्थान पर मैंने यह सुझाव दिया कि व्यक्तिगत मेरे स्थान पर जो कृतित्व और व्यक्तित्व से कार्य संभव हुआ है उसे ही प्रधानता दी जाय।
इस ग्रंथ के संपादक डॉ. सत्यनारायण ‘प्रसाद’ विद्वान एवं विनयशील व्यक्ति हैं। वे चाटुकार प्रकृति के साहित्यिक नहीं हैं, और संतुलित विद्वान द्वारा कार्य करने से मुझे हार्दिक प्रसन्नता हुई। डॉ. प्रसाद में विद्या और विनय का अनोखा संगम है। मैं उनके इस सौहार्दपूर्ण कार्य के लिए उन्हें आशीर्वाद देता हूँ।
श्री रंगनाथ काबरा, जो इस ग्रंथ के संयोजक हैं, मेरी इनसे लगभग चालीस वर्ष से भी अधिक का परिचय है। डॉ. प्रसाद को जोड़ने में उनकी ही भावना थी। बेटी मंदाकिनी की प्रशंसा करना बड़ा कठिन कार्य है। मेरे स्वास्थ्य, साहित्य, आश्रय-संचालन तथा साधना के चलते समय निकालकर वे डॉ. प्रसाद का सहयोग करती रहीं। मेरे प्रिय मैथिलीशरण का सहयोग भी भुलाया नहीं जा सकता। अंत में मैं इसके ग्रंथ के आर्थिक सहयोगों में यद्यपि श्री तेजकुमार आशाखा रुइया की विशिष्ट भूमिका रही, किन्तु उन सभी महानुभावों (सूची संलग्न है) को जिनका सहयोग भी उल्लेखनीय है, उन्हें व उनके परिवार को मेरा हार्दिक आशीर्वाद। भगवान की कृपा उन पर बनी रहे।
इस ग्रंथ की संरचना में भी पुरातन और नवीन परम्परा के विकसित रूप को देखा जा सकता है। प्राचीन काल से ही भक्त अपने श्रद्धेय व्यक्तियों का गुणगान करते रहे हैं और इन दिनों कई वर्षों से अभिनंदन ग्रंथों की परंपरा चल पड़ी है जिनमें अपने श्रद्धेय के प्रति हृदयगत सम्मान और अन्य लोगों का भावना को एकत्रित कर प्रकाशित करने का चलन है। इस परम्परा में गुण और दोष दोनों ही विद्यमान रहते हैं और कई बार अभिनंदन ग्रंथ की विशालता पाठकों के मस्तिष्क को बोझिल बना देती है।
मेरे समक्ष भी यह समस्या तब आई जब शिष्यों और भक्तों की यह आकांक्षा प्रबल हो उठी कि जीवन के पछत्तर वर्ष पूरे करने के बाद पूरे वर्ष को ही अमृत-महोत्सव वर्ष का रूप दे दिया जाय और पुरातन और नवीन मिलाकर एक ऐसे संग्रह की रचना की जाय जो समाज और जिज्ञासुओं के लिए संस्मरण स्वरूप हो।
मेरी अभिरुचि इस दिशा में न होने पर भी जब मुझे यह जानकारी प्राप्त हुई कि इसकी तैयारी लगभग पूर्ण हो चुकी है तब इसका विरोध अभीष्ट नहीं था, पर मैंने अपनी इस धारणा को अवश्य स्पष्ट कर दिया था कि इस ग्रंथ को प्रमाण पत्रों का संग्रह न बना दिया जाय, क्योंकि जो मुझसे परिचित नहीं हैं, ऐसे अनेक विशिष्ट लोग हो सकते हैं यदि जो मेरे बारे में औपचारिकता के नाते नाम सुनकर कुछ वाक्य लिख दें तो मेरी दृष्टि से ऐसा संग्रह निर्रथक है। यदि ऐसी ही सम्मतियों को संग्रह करना हो तब तो कई पोथ बनाए जा सकते हैं। इसके स्थान पर मैंने यह सुझाव दिया कि व्यक्तिगत मेरे स्थान पर जो कृतित्व और व्यक्तित्व से कार्य संभव हुआ है उसे ही प्रधानता दी जाय।
इस ग्रंथ के संपादक डॉ. सत्यनारायण ‘प्रसाद’ विद्वान एवं विनयशील व्यक्ति हैं। वे चाटुकार प्रकृति के साहित्यिक नहीं हैं, और संतुलित विद्वान द्वारा कार्य करने से मुझे हार्दिक प्रसन्नता हुई। डॉ. प्रसाद में विद्या और विनय का अनोखा संगम है। मैं उनके इस सौहार्दपूर्ण कार्य के लिए उन्हें आशीर्वाद देता हूँ।
श्री रंगनाथ काबरा, जो इस ग्रंथ के संयोजक हैं, मेरी इनसे लगभग चालीस वर्ष से भी अधिक का परिचय है। डॉ. प्रसाद को जोड़ने में उनकी ही भावना थी। बेटी मंदाकिनी की प्रशंसा करना बड़ा कठिन कार्य है। मेरे स्वास्थ्य, साहित्य, आश्रय-संचालन तथा साधना के चलते समय निकालकर वे डॉ. प्रसाद का सहयोग करती रहीं। मेरे प्रिय मैथिलीशरण का सहयोग भी भुलाया नहीं जा सकता। अंत में मैं इसके ग्रंथ के आर्थिक सहयोगों में यद्यपि श्री तेजकुमार आशाखा रुइया की विशिष्ट भूमिका रही, किन्तु उन सभी महानुभावों (सूची संलग्न है) को जिनका सहयोग भी उल्लेखनीय है, उन्हें व उनके परिवार को मेरा हार्दिक आशीर्वाद। भगवान की कृपा उन पर बनी रहे।
रामकिंकर
तुभ्यमेव समर्पयेत्
त्वमेव माता च पिता त्वमेव, त्वमेव बन्धुश्च सखा त्वमेव।
त्वमेव विद्या द्रविणं त्वमेव, त्वमेव सर्वं मम देव देव।।
त्वमेव विद्या द्रविणं त्वमेव, त्वमेव सर्वं मम देव देव।।
हमारे पूज्य पिता साकेतवासी श्री बालकृष्ण जी रुइया एवं मातुश्री
साकेतवासिनी श्रीमती गीता बाई रुइया की कृपा से पूज्य महाराज श्री
रामकिंकर जी के चरण कमलों की सेवा करने का कुछ अवसर हम दोनों को प्राप्त
हुआ। महाराज श्री हमारे यहाँ प्रवचन के दौरान या कभी भी शारीरिक चिकित्सा
के तहत जब मुम्बई आते हैं, तो बर्ली सी फेस स्थित निवास-स्थान पर बाबू से
लेकर घर के कर्मचारियों तक महाराजश्री उस समय घर में हो या न हों पर हमेशा
उस कक्ष को गुरु जी के कमरे के नाम से पुकारते हैं। यह नाम कोई नया रखा
गया नाम नहीं है, अपितु हम पर जो उनकी अहेतुकी कृपा है उसको साकार करने
वाला एक छोटा सा प्रसंग है। एक बार घर के एक नौकर को मैंने यह कहकर डाँटते
सुना, ‘‘मालुम नहीं है कि ये गुरूजी की केटली है।
इसमें बाबू
चाय नहीं लेते हैं।’’
मेरा पुत्र गगन एक बार अपनी मम्मी से डाँट खाकर महाराज श्री के पास शिकायत लेकर पहुँचा कि आप इन्हें डाटिए क्योंकि इन्होंने ने मुझे मारा है। उस समय घर का सबसे छोटा सदस्य वही था और ड्राइंग रूम में हम लोगों के रहते उसको यह विश्वास था कि महाराज श्री के कमरे में या तो उसकी चलेगी या गुरूजी की। यह प्रसंग यह सिद्ध करता है कि हमारे घर में महाराज श्री का क्या स्थान है ?
महाराज के शिष्य श्री मैथिलीशरणजी, श्री आर.एन.काबरा एवं रामायणम् संस्कृति के सम्पादक डॉ. सत्यनारायण प्रसाद जब एक दिन आपस में चर्चा कर रहे थे कि महाराज श्री के परिचय के रूप में एवं उनके संपूर्ण जीवन को आलोकित करने वाली एक पुस्तक निकले जिसमें उन करोड़ों लोगों की जिज्ञासा की शांति हो सके जो उनके बारे में गहराई से जानना चाहते हैं। मेरे मुख से निकल गया कि यह सेवा मेरी ओर से होगी, आप लोग इस कार्य को शीघ्र कीजिए।
पिछले 21 वर्षों से हमारे दादा और दादी जी द्वारा निर्मित श्रीलक्ष्मीनारायण मन्दिर विले पार्ले में महाराज श्री के प्रवचनों के लगभग 20 से 21 सत्र पूरे हो चुके हैं। इन सत्रों में इतने ही विषयों पर महाराजश्री ने अपनी सूक्ष्मतम व्याख्या के द्वारा दक्षिणी मु्म्बई के निवासियों को रामकथामृत का पान कराया है। स्थान की दृष्टि से इतनी छोटी जगह महाराज श्री के प्रवचन के लिये उनकी गरिमा के अनुकूल नहीं है, फिर भी भगवान श्रीलक्ष्मीनारायण जी के दर्शन और उनके सान्निध्य में बैठकर महाराज श्री को कथा कहने और हम सबको सुनने में एक विशेष प्रकार के भाव एवं पवित्रता की अनुभूति होती है।
महाराज श्री के परिचय को वाणी, लेखनी अथवा चर्चा के तहत सीमित शब्दों में नहीं समेटा जा सकता। उनका परिचय तो उनके द्वारा लिखित वह विपुल साहित्य है, जो वर्तमान और आने वाली पीढियों के लिए क्रमशः प्रकाशित हो रहा है।
रामचरितमानस के नाम के साथ महाराज श्री का नाम एक विशिष्ट गरिमा के साथ जुड़ा रहेगा। मैं अपने परिवार के साथ उनके चरणों में शत्-शत् प्रणाम करता हूँ। हमारा सौभाग्य है कि ‘तस्मै श्री गुरुवे नमः’’ का प्रकाशन हो रहा है और हम उसके साथ जुड़े हैं, इसे उनके श्रीचरणों में समर्पित कर यही निवेदन करते हैं—‘‘तुभ्यमेव समर्पयेत्’’।
मेरा पुत्र गगन एक बार अपनी मम्मी से डाँट खाकर महाराज श्री के पास शिकायत लेकर पहुँचा कि आप इन्हें डाटिए क्योंकि इन्होंने ने मुझे मारा है। उस समय घर का सबसे छोटा सदस्य वही था और ड्राइंग रूम में हम लोगों के रहते उसको यह विश्वास था कि महाराज श्री के कमरे में या तो उसकी चलेगी या गुरूजी की। यह प्रसंग यह सिद्ध करता है कि हमारे घर में महाराज श्री का क्या स्थान है ?
महाराज के शिष्य श्री मैथिलीशरणजी, श्री आर.एन.काबरा एवं रामायणम् संस्कृति के सम्पादक डॉ. सत्यनारायण प्रसाद जब एक दिन आपस में चर्चा कर रहे थे कि महाराज श्री के परिचय के रूप में एवं उनके संपूर्ण जीवन को आलोकित करने वाली एक पुस्तक निकले जिसमें उन करोड़ों लोगों की जिज्ञासा की शांति हो सके जो उनके बारे में गहराई से जानना चाहते हैं। मेरे मुख से निकल गया कि यह सेवा मेरी ओर से होगी, आप लोग इस कार्य को शीघ्र कीजिए।
पिछले 21 वर्षों से हमारे दादा और दादी जी द्वारा निर्मित श्रीलक्ष्मीनारायण मन्दिर विले पार्ले में महाराज श्री के प्रवचनों के लगभग 20 से 21 सत्र पूरे हो चुके हैं। इन सत्रों में इतने ही विषयों पर महाराजश्री ने अपनी सूक्ष्मतम व्याख्या के द्वारा दक्षिणी मु्म्बई के निवासियों को रामकथामृत का पान कराया है। स्थान की दृष्टि से इतनी छोटी जगह महाराज श्री के प्रवचन के लिये उनकी गरिमा के अनुकूल नहीं है, फिर भी भगवान श्रीलक्ष्मीनारायण जी के दर्शन और उनके सान्निध्य में बैठकर महाराज श्री को कथा कहने और हम सबको सुनने में एक विशेष प्रकार के भाव एवं पवित्रता की अनुभूति होती है।
महाराज श्री के परिचय को वाणी, लेखनी अथवा चर्चा के तहत सीमित शब्दों में नहीं समेटा जा सकता। उनका परिचय तो उनके द्वारा लिखित वह विपुल साहित्य है, जो वर्तमान और आने वाली पीढियों के लिए क्रमशः प्रकाशित हो रहा है।
रामचरितमानस के नाम के साथ महाराज श्री का नाम एक विशिष्ट गरिमा के साथ जुड़ा रहेगा। मैं अपने परिवार के साथ उनके चरणों में शत्-शत् प्रणाम करता हूँ। हमारा सौभाग्य है कि ‘तस्मै श्री गुरुवे नमः’’ का प्रकाशन हो रहा है और हम उसके साथ जुड़े हैं, इसे उनके श्रीचरणों में समर्पित कर यही निवेदन करते हैं—‘‘तुभ्यमेव समर्पयेत्’’।
विनयावनत्
आशा, तेजकुमार रुइया
आशा, तेजकुमार रुइया
ब्रह्मानंदं परमसुखदं केवलं ज्ञानमूर्ति। द्वन्द्वातीतं गगनसदृशं
तत्वमस्यादिलक्ष्यम्।।
एक नित्यं विमलचलं सर्वधी साक्षिभूतं। भावातीतं त्रिगुणरहितं सदगुरं तं नमामि।।
एक नित्यं विमलचलं सर्वधी साक्षिभूतं। भावातीतं त्रिगुणरहितं सदगुरं तं नमामि।।
गोस्वामी तुलसीदास जी ने मानव मन की शाश्वत समस्या का समाधान
‘रामचरितमानस’ के रूप में प्रस्तुत किया है, जो
शाश्वत है।
चाहे वह कृत युग रहा हो, त्रेता, द्वापर या कलियुग-मानव मन की उलझनें
ज्यों-की-त्यों हैं। हमारी पौराणिक मान्यता के अनुकूल लोगों के मानसिक
धरातल में गिरावट के लक्षण बढ़ते जा रहे हैं। हमारा यह परम सौभाग्य है कि
ऐसी सामाजिक विभीषिका के मध्य हमें सद्गुरु के रूप में ऐसे वैद्य प्राप्त
हैं, जो समस्त मानसिक अशांतियों और विभीषिकाओं से जूझने के लिए
‘मानस’ का अमृत-कलश लेकर प्रस्तुत हैं।
सद्गुरु वैद्य बचन विस्वासा।
संजम यह न विषय कै आसा।।
संजम यह न विषय कै आसा।।
श्रीमत् रामकिंकर जी महाराज तुलसी-साहित्य की तत्त्व एवं शास्त्रीय
व्याख्या करने के लिए स्वनामधन्य महापुरुष हैं। वे आचार्य कोटि के संत
हैं। उनके गुणों में शील और उदारता व्याख्यायित और चरितार्थ होते हैं।
जिस प्रकार रोम-रोम से श्रीराम की सेवा करने वाले हनुमान जी महाराज अपना बल भूले रहते हैं, उसी प्रकार मैं आपको अन्तःकरण खोलकर कह देना चाहता हूँ कि महाराज श्री के व्यवहार और स्वभाव को देखकर कोई व्यक्ति यह कल्पना भी नहीं कर सकता कि मैं उस महापुरुष के सान्निधिय में हूँ जो सारे विश्व में मानस-शिरोमणि के रूप में सुविख्यात और मान्य हैं। जीवन में पग-पग पर संदर्भ चाहे व्यवहार का हो या अध्यात्म का, महाराजश्री अपनी बात को पुष्ट करने के लिए गोस्वामी तुलसीदासजी की कोई न कोई पंक्ति उद्धृत किये बिना उसे पूर्ण नहीं मानते। यह बात पढ़ने या सुनने में भले ही प्रभावोत्पादक न हो, पर यह सम्भव केवल उसी के लिए है जो गोस्वामी जी की आत्मा से तादात्म्य रख कर जीवन की प्रत्येक स्वास जी रहा हो।
ऐसे अन्तरंग धर्मसंकट और विरोधाभाषों के मध्य महाराज श्री रामकिंकर जी द्वारा किया गया कार्य भारतीय संस्कृति और वाङ्मय की अनमोल धरोहर के रूप में दिखाई देता है। भविष्य में जब किसी प्रश्न पर तथ्यपरक या तत्त्वपरक उत्तर की तलाश होगी तब निष्कर्ष निकालने के लिए रामकिंकर साहित्य ही खोला जायेगा।
महाराजश्री भौतिक अर्थों में रामचरितमानस के ऐसे मर्मज्ञ वक्ता हैं जिनके लेखन और कथन में किसी भी पक्ष का असन्तुलन अथवा अतिरेक जैसे विकारों का स्पर्श नहीं होता। वे तुलसीदासजी की बात को सिद्ध करने के लिए किसी अन्य अथवा वैज्ञानिक कसौटी पर युक्तिमुक्त सिद्ध करने के लिए मोहताज नहीं हैं। उनका मानना है कि मनुष्य जीवन, चाहे वह किसी वर्ण अथवा सम्प्रदाय से सम्बन्ध रखने वाला हो, ऐसी कोई भौतिक या आध्यात्मिक समस्या नहीं है जिसका उद्धरण गोस्वामी तुलसीदास जी ने मानस में आये पात्रों के क्रिया-कलापों अथवा घटनाक्रम के माध्यम से समाधान की दिशा तक न पहुँचा दिया हो।
महाराज श्री की भाषा और शैली की विशेषता है कि वे किसी राष्ट्र, जाति, वर्ग, या दलगत भावनाओं को उभारकर कभी भी अपने भाषण को उत्तेजक और समसामयिक बनाकर सस्ती लोकप्रियता प्राप्त करने की चेष्टा कदापि नहीं करते। जिस बात को न जाने कितने मंचों से उत्तेजना के स्वर में उद्देश्यहीन भावनाओं के आधार पर ऊँचे-ऊँचे स्वरों में बखान किया जाता है, भगवान श्रीराम ने उनको और उनसे श्रेष्ठतम आदर्शों को अपने जीवन की तनिक भी विशेषता न मानकर चरितार्थ कर दिया है।
महाराजश्री अपने प्रवचनों में ऐसे-ऐसे सूत्र इतनी सहजता से देते हैं जिनमें कृतित्व का अंग स्पर्श भी नहीं होता। ऐसा कोई राष्ट्र नहीं होता, ऐसा कोई व्यक्ति या समाज नहीं हो सकता जिसका रामचरितमानस में वर्णित सामाजिक मर्यादा, श्रीराम की शील-सौजन्य, उनके जीवन की नीति, प्रीति, स्वार्थ और परमार्थ एवं प्राणीमात्र पर कृपा की आवश्यकता न हो। यह बात अलग है कि कोई अपने मत और मान्यताओं में जकड़ कर राम और राम-राज्य के आदर्श न मानकर अपनी भावनात्मक आस्था के केन्द्र से जोड़कर उसका समर्थन करें। पर ये मूल्य अकाट्य थे, हैं और रहेंगे, अर्थात् राम थे, और रहेंगे।
महाराजश्री के बारे में कुछ भी लिख पाना इसलिए संभव नहीं है क्योंकि भावनात्मक अनुभूतियों को शब्दों की सीमा में ला पाना संभव नहीं हो सकता। मेरे पास या मेरे जीवन में किंचित मात्र भी यदि कोई विशेषता है तो वह केवल महाराजश्री की कृपा का प्रतिफल है, उनके उपकारों और उनकी कृपा के बदले मैं अपने शरीर की चमड़ी की उनकी जूती भी बना दूँ तो भी मैं उससे उऋण नहीं हो सकूँगा। वे अन्नत हैं, उनका चिन्तन, उनका लेखन और उनका व्यक्तित्व अनन्त है।
गंगा में चाहें ज्ञानी प्रवेश करें या परम अज्ञानी पर पवित्रता दोनों को ही मिलेगी, क्योंकि पवित्रा को पाने के लिए कोई पुरुषार्थ नहीं करना पड़ता अपितु वह तो गंगा का ही अपना गुण है जो प्रत्येक को समान रूप से धन्यता प्रदान करती है।
इस ग्रन्थ के अलग-अलग सोपानों में महाराजश्री के जीवन की कुछ झलकियाँ, साधना की सुगंधि, साधकों की भावना एवं कृतित्व का कुछ अंश ही समाविष्ट हुआ है और वस्तुतः यह भावना का वह बिन्दु है जिसमें सिन्धु का दर्शन कराने में सहयोगी सभी रचनाधर्मी, भावचित्रों के संयोजनकर्ता श्री शिवकुमार चौबे, ग्रंथ प्रकाशन के संयोजक श्री आर.एन. काबरा एवं ग्रंथ के संपादक डॉ. सत्यनारायण ‘प्रसाद’ साधुवाद के पात्र हैं।
जिस प्रकार रोम-रोम से श्रीराम की सेवा करने वाले हनुमान जी महाराज अपना बल भूले रहते हैं, उसी प्रकार मैं आपको अन्तःकरण खोलकर कह देना चाहता हूँ कि महाराज श्री के व्यवहार और स्वभाव को देखकर कोई व्यक्ति यह कल्पना भी नहीं कर सकता कि मैं उस महापुरुष के सान्निधिय में हूँ जो सारे विश्व में मानस-शिरोमणि के रूप में सुविख्यात और मान्य हैं। जीवन में पग-पग पर संदर्भ चाहे व्यवहार का हो या अध्यात्म का, महाराजश्री अपनी बात को पुष्ट करने के लिए गोस्वामी तुलसीदासजी की कोई न कोई पंक्ति उद्धृत किये बिना उसे पूर्ण नहीं मानते। यह बात पढ़ने या सुनने में भले ही प्रभावोत्पादक न हो, पर यह सम्भव केवल उसी के लिए है जो गोस्वामी जी की आत्मा से तादात्म्य रख कर जीवन की प्रत्येक स्वास जी रहा हो।
ऐसे अन्तरंग धर्मसंकट और विरोधाभाषों के मध्य महाराज श्री रामकिंकर जी द्वारा किया गया कार्य भारतीय संस्कृति और वाङ्मय की अनमोल धरोहर के रूप में दिखाई देता है। भविष्य में जब किसी प्रश्न पर तथ्यपरक या तत्त्वपरक उत्तर की तलाश होगी तब निष्कर्ष निकालने के लिए रामकिंकर साहित्य ही खोला जायेगा।
महाराजश्री भौतिक अर्थों में रामचरितमानस के ऐसे मर्मज्ञ वक्ता हैं जिनके लेखन और कथन में किसी भी पक्ष का असन्तुलन अथवा अतिरेक जैसे विकारों का स्पर्श नहीं होता। वे तुलसीदासजी की बात को सिद्ध करने के लिए किसी अन्य अथवा वैज्ञानिक कसौटी पर युक्तिमुक्त सिद्ध करने के लिए मोहताज नहीं हैं। उनका मानना है कि मनुष्य जीवन, चाहे वह किसी वर्ण अथवा सम्प्रदाय से सम्बन्ध रखने वाला हो, ऐसी कोई भौतिक या आध्यात्मिक समस्या नहीं है जिसका उद्धरण गोस्वामी तुलसीदास जी ने मानस में आये पात्रों के क्रिया-कलापों अथवा घटनाक्रम के माध्यम से समाधान की दिशा तक न पहुँचा दिया हो।
महाराज श्री की भाषा और शैली की विशेषता है कि वे किसी राष्ट्र, जाति, वर्ग, या दलगत भावनाओं को उभारकर कभी भी अपने भाषण को उत्तेजक और समसामयिक बनाकर सस्ती लोकप्रियता प्राप्त करने की चेष्टा कदापि नहीं करते। जिस बात को न जाने कितने मंचों से उत्तेजना के स्वर में उद्देश्यहीन भावनाओं के आधार पर ऊँचे-ऊँचे स्वरों में बखान किया जाता है, भगवान श्रीराम ने उनको और उनसे श्रेष्ठतम आदर्शों को अपने जीवन की तनिक भी विशेषता न मानकर चरितार्थ कर दिया है।
महाराजश्री अपने प्रवचनों में ऐसे-ऐसे सूत्र इतनी सहजता से देते हैं जिनमें कृतित्व का अंग स्पर्श भी नहीं होता। ऐसा कोई राष्ट्र नहीं होता, ऐसा कोई व्यक्ति या समाज नहीं हो सकता जिसका रामचरितमानस में वर्णित सामाजिक मर्यादा, श्रीराम की शील-सौजन्य, उनके जीवन की नीति, प्रीति, स्वार्थ और परमार्थ एवं प्राणीमात्र पर कृपा की आवश्यकता न हो। यह बात अलग है कि कोई अपने मत और मान्यताओं में जकड़ कर राम और राम-राज्य के आदर्श न मानकर अपनी भावनात्मक आस्था के केन्द्र से जोड़कर उसका समर्थन करें। पर ये मूल्य अकाट्य थे, हैं और रहेंगे, अर्थात् राम थे, और रहेंगे।
महाराजश्री के बारे में कुछ भी लिख पाना इसलिए संभव नहीं है क्योंकि भावनात्मक अनुभूतियों को शब्दों की सीमा में ला पाना संभव नहीं हो सकता। मेरे पास या मेरे जीवन में किंचित मात्र भी यदि कोई विशेषता है तो वह केवल महाराजश्री की कृपा का प्रतिफल है, उनके उपकारों और उनकी कृपा के बदले मैं अपने शरीर की चमड़ी की उनकी जूती भी बना दूँ तो भी मैं उससे उऋण नहीं हो सकूँगा। वे अन्नत हैं, उनका चिन्तन, उनका लेखन और उनका व्यक्तित्व अनन्त है।
गंगा में चाहें ज्ञानी प्रवेश करें या परम अज्ञानी पर पवित्रता दोनों को ही मिलेगी, क्योंकि पवित्रा को पाने के लिए कोई पुरुषार्थ नहीं करना पड़ता अपितु वह तो गंगा का ही अपना गुण है जो प्रत्येक को समान रूप से धन्यता प्रदान करती है।
इस ग्रन्थ के अलग-अलग सोपानों में महाराजश्री के जीवन की कुछ झलकियाँ, साधना की सुगंधि, साधकों की भावना एवं कृतित्व का कुछ अंश ही समाविष्ट हुआ है और वस्तुतः यह भावना का वह बिन्दु है जिसमें सिन्धु का दर्शन कराने में सहयोगी सभी रचनाधर्मी, भावचित्रों के संयोजनकर्ता श्री शिवकुमार चौबे, ग्रंथ प्रकाशन के संयोजक श्री आर.एन. काबरा एवं ग्रंथ के संपादक डॉ. सत्यनारायण ‘प्रसाद’ साधुवाद के पात्र हैं।
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